Wednesday, 29 December 2010

आदि से अंत

मूल्य,
बहुत मायने रखता है जीवन में
ठीक जीवन-मूल्यों की तरह।
रोजमर्रा की जरूरतों की तरह।
रसोई से लेकर ओसारे तक
घर-आंगन की तरह।

मूल्य,
बहुत मायने रखता है जीवन में
ठीक वैचारिक-मूल्यों की तरह।
आचार और विचार की तरह।
घर से लेकर दफ्तर तक
सोच-संस्कार की तरह।

मूल्य,
बहुत मायने रखता है जीवन में
ठीक शाश्वत-मूल्यों की तरह।
गतिशील संवाद की तरह।
शुरू से लेकर आखिर तक
प्रतिबद्ध अवधारणाओं की तरह।

मूल्य,
बहुत मायने रखता है जीवन में
ठीक सामाजिक-मूल्यों की तरह।
हमारी मान्यताओं की तरह।
बड़ों से लेकर छोटे तक
प्यार-दुलार की तरह।

मूल्य,
बहुत मायने रखता है जीवन में
ठीक गणितीय-मूल्यों की तरह।
अंकों के खेल की तरह।
आमदनी से लेकर खर्च तक
हिसाब-किताब की तरह।

मूल्य,
बहुत मायने रखता है जीवन में
ठीक भौगोलिक-मूल्यों की तरह।
सुविधा और साधन की तरह।
यहां से लेकर वहां तक
सारे जहान की तरह।

मूल्य,
बहुत मायने रखता है जीवन में
ठीक संबंध-मूल्यों की तरह।
दोस्तों और दुश्मनों की तरह।
अच्छे से लेकर बुरे तक
बदलते रिश्ते की तरह।

Sunday, 19 December 2010

कांग्रेस

बुढिय़ा चहक रही है।
बुढिय़ा फुदक रही है।
बुढिय़ा की खुशी असीम है।
यह पल कितना हसीन है।

सवा सौ साल कम नहीं होते-
दिमाग काम करना बंद कर देता है।
हाथ-पैर सुन्न हो जाते हैं।
आला यह कि- बीच राह सांस टूट जाती है।

यह बुढिय़ा फिर भी बेफिक्र है।
दशकों से राज करती आ रही थी।
अब कहेगी सदियों से राज करती हूं।
वह राज करने के लिए ही जिंदा है।

यह बुढिय़ा आखिर मरती क्यों नहीं?
न आपातकाल का शर्म इसे डुबो पाई।
न बोफोर्स के गोले इसे दहका पाई।
न कभी मौत का खौफ सहमा पाई।

बेलज्ज बुढिय़ा के बच्चे भी बूढ़े हो गए।
पहले राजकुमार फिर महाराज बने।
राज मगर चलता रहा, चलता रहेगा
छोटे-छोटे कॉमर्शियल ब्रेक के बावजूद।

बुढिय़ा अब पोते पर गुमान करती है।
बुढ़ाए-सठियाये बेटे को छोड़ दी-
पोते को अब युवराज कहती है।
मगर इशारे में महाराज बताती है।

बुढिय़ा फिर भी नहीं मरेगी।
वह जिंदा रहेगी ताजिंदगी।
गाल भले ही चिपक जाएं।
दांत टूट जाए, वह थोथी हो जाए।

बुढिय़ा, महाराज या हे महामना युवराज।
क्या है आपके लंबे जीवन का राज?

Thursday, 30 September 2010

शानो-शौकत

हमारे घर की दीवार देख
इसकी ऊंचाई भी देख
बड़ी मिहनत से बनाई है
समझ ले ये मेरी कमाई है

मेरे शानो-शौकत देख
ऐशो-आराम मेरे तू देख
ये गाड़ियाँ नई-नई लाई है
समझ ले ये मेरी कमाई है

मेरे पैरहन पर गौर फरमा
चमकते बूटों को निहार
देख आदमकद सफाई है
समझ ले ये मेरी कमाई है

मेरे रूतबे से वाकिफ सब
शहर में हैं मुरीद सब मेरे
नहीं ये ताल्लुकात हवा-हवाई है
समझ ले ये मेरी कमाई है

गांव की गंध नहीं आती है 
उस मिट्टी से दूरी सताती है
कहते हैं ये खुद से बेवफाई है
क्या व्यर्थ ये सारी कमाई है?

Thursday, 23 September 2010

पथ बदलते हैं

पथ बदलते हैं
हम और आप सभी
घर बदलने के लिए
घर सँवारने के लिए
घर सजाने के लिए
और
अच्छे ठिकाने की चाहत में
रास्ते आड़े हों
रास्ते तिरछे हों
टेढ़े हों - मेढे हों
ऊपर या नीचे हों
मंजिल तो चाहिए आख़िरकार

हमने परिंदों से सीखा है
उड़ना और उड़ते रहना.

Thursday, 8 July 2010

चेहरे

अजीब बनावट थी उस चेहरे की
हर चेहरा उसी ओर मुड़ गया था
अपने चेहरे को भूलकर
लोग उसी चेहरे को देखते थे
लोग देखते थे चेहरे की सोखी
चेहरे का खुरदुरापन
और देखते थे बदलते भाव
यह भूलकर कि अपना चेहरा
भी बदलता है रंग-ढंग
और हाव-भाव भी
यह भूल जाते थे
कि हमारा चेहरा भी लोग पढ़ रहे हैं
दरअसल, चेहरे होते ही ऐसे हैं
इत्मीनान से धोखा दे जाते हैं.

Sunday, 27 June 2010

अंतर्राष्ट्रीय सीमा


भारत और पाकिस्तान की  चमलियाल स्थित जीरो लाइन. यह अंतर्राष्ट्रीय सीमा है. बांध पर पाकिस्तान के रेंजर मुस्तैद हैं. सामने बी एस एफ के सैनिक.








हमारे पाक क़दमों के निशां
तुम्हारी जमीं पर पड़े हैं
नीयत तुम्हारी जान ली
देखो फिर भी हम अड़े हैं
तुम्हारे दरख़्त लहलहायें
याद रख इधर उसकी जड़ें हैं
क़द्र करना सीख नेक बन
हर मोड़ पड़ हम तुमसे बड़े हैं.

Wednesday, 21 April 2010

अगर मेरे पास पैसा होता

अगर मेरे पास पैसा होता
कुछ चमचों को लेकर दौड़ते
समाज कल्याण की बातें करते
आश्वशनों का झुनझुना बजाते

झूठ बोलते, मैं भी नेता होता.
अगर मेरे पास पैसा होता . 

गरीबों को खाना दूंगा
बेरोजगारों को नौकरी दूंगा
बेघर का घर बनवाऊंगा

वादे करके, मैं भी नेता बनता
अगर मेरे पास पैसा होता .

प्यासे मन को पानी देकर 
भूखों को दाना-खाना देकर
चमचों की जेबें भरकर

सपने दिखाकर, मैं भी नेता बनता
अगर मेरे पास पैसा होता .

Thursday, 1 April 2010

आज और कल

उस समय
छात्र जीवन में
धराधर जवाब देने वाला
मेरा सहपाठी
और निरूत्तर मैं,
- शर्म आती थी .

कॉलेज के ज़माने में
हर विधा में दे देता व्याख्यान
मेरा क्लासमेट
वहां भी मौन
मैं मूढ़
तब भी -
- शर्म आती थी.

दफ्तर में
बॉस का प्रियपात्र
बना मेरा सहकर्मी
कार्यकुशल कहलाता
मैं - घोषित अकार्यकुशल,
- शर्म आती थी.

लेकिन,
मैं चौंकता रहा हूँ -
सहपाठियों, क्लामेटों और सहकर्मियों को
जब-जब आया
मेरा बेहतर परीक्षा परिणाम
प्रबंधन ने दिया बेस्ट सर्विस का इनाम.

और, तब
लोगों ने महसूसा
मेरे चिंतनशील मन और गतिशील तन को.
आज शर्म नहीं आयी.

लेकिन,
उनको क्यों नहीं आती शर्म
जो टंगने वाले हैं दीवारों पर
दिन-दो-दिन बाद
चढ़ेंगे उन पर पुष्पाहार
लेकिन पुष्पाहार चढाने वाले हाथ
होंगे अबोध और अज्ञान
उन्हें - नहीं आती शर्म.

मुझे मालूम है
मैं भी टंग जाऊंगा एक दिन दीवारों पर
मुझ पर भी चढ़ेंगे पुष्पाहार
लेकिन वो हाथ होंगे
मेरी चिंतन और मेरी मेहनत की उपज
मुझसे बहुत बड़े ...

उस दिन -
दीवार पर टंगी मेरी तस्वीर
मुस्कराती नज़र आयेगी.

Tuesday, 16 March 2010

फासले

फिर वही समंदर
वही बड़ी मछली
और छोटी मछली
जारी है सिलसिला
खाने और निगलने का

ये और बात है
कि गोरे चले गए, पर
अगड़ा तो है पिछड़ो के लिए
उंच तो है नीच के लिए
मोटे हैं दुबले के लिए

समंदर की वही स्थिति  है
बड़ी व्हेल का राज है
सब कुछ जानती है छोटी मछली
तड़प रही है, फंस रही है.
खाई-पचाई जा रही है.

Sunday, 7 March 2010

मेरी मां

मुझे खिलाने के बाद
चुपके से जाकर सो गयी
कटोरी भरकर दूध दी थी मुझे
बोली, मैं पी चुकी इसलिए कम रह गयी
वह बिस्तर पर खांस रही थी
मैं करवटें बदल रहा था.
मुझे मालूम है
मां आज फिर झूठ बोल गयी.

Friday, 12 February 2010

तुम और मैं

बात-बात पर धमकी
और फटकार
सो-कोज के बाद
जारी तकरार
रोजनामचे में शामिल
उनका व्यवहार .
ये कैसे हो गया
वो कैसे हो गया
हमसे पूछ तो लेते
कह कर तो जाते
मुझे पसंद नहीं -
आगे से ऐसा नहीं चलेगा.
अपने को तो आदत है
ऐसे ही होता स्वागत है.

मेरी हाँ में हाँ मिलाना
तुमसे ही है ज़माना
बस यूं ही निहारता रहूँ
यूं डूबता रहूँ उतरता रहूँ
फिर मेरा कदम बढ़ाना
मेरी आदत है उकताना.
उसने भी है ठाना
पहले थोड़ा सकुचाना
फिर देह का चुराना
हंसी-ठट्ठे के बाद
एकाकार हो जाना
सारे रंजो गम भुलाकर
मुझको गले लगाकर
आँखें मूँद लेना
थोड़ी ही देर बाद
निंदिया के पास जाना

अपुन की ज़िंदगी है
ऐसे ही चलती है.

Monday, 8 February 2010

नज़्म

ज़माना बदल रहा है ये और बात है.
बेलौस हैं मेरे कदम ये और बात है.

आसमां नापती है सैर करती है चिड़िया
लौट आती दरख़्त पर ये और बात है.

मेरे परवाज की परवाह क्यों करे कोई
चुभती है उड़ान उन्हें ये और बात है.

तुम्हारे कदम नपे-तुले नज़र सधी हुई
डगमगा रहा मैं बीच राह ये और बात है.

मेरी रफ़्तार पर न कर जहमते सौदागरी
खाके ठोकर संभलते हैं ये और बात है.

सरेबाजार मोल लगा भाव तय किये
न आया खरीदार कोई ये और बात है.

आ चल मेरे साथ मेरी आँख देख
नजाकत सिर्फ यहीं ये और बात है.

Sunday, 24 January 2010

दोहरा संवाद

तेरे स्पृश्य चेहरे पर
उभरने वाले भावों-विचारों को
पढता हूँ -
हर रोज, हर पल, हर वक़्त .
मुझे एहसास है
तुम्हारी गहराइयों का,
तुम्हारे ख्वाब
तुम्हारे सपनों की भी
परवाह है मुझे.
मैं कह सकता हूँ
यह महज प्यार नहीं,
दूर तक सुनी जाने वाली
दिल की आवाज़ नहीं
बंधन है, आलोड़न है, अपनापन है
ये मैं नहीं हम कहते हैं.

Sunday, 17 January 2010

शाश्वत प्यार

हमारे और तुम्हारे
अलग-अलग अस्तित्व,
एकाकार होते हम
अँधेरे में बिस्तर पर
संवेदना के
व्यापक गलियारे में
विचरते
अलग-अलग,
साथ-साथ.
कुलांचे भरती
तुम्हारी कल्पना
हमारे स्थिर मन को
अक्सर झकझोरती है.
वो तुम्हारा अस्तित्व है
मेरे और तेरे से
हम होने तक का
एहसास कराती है.
तुम्हारा चंचल मन
खुद की बेकरार सांसों
के बरक्स
मिलन का भाव जगती है.
और यहीं से पैदा होता है
शाश्वत प्यार.

Wednesday, 13 January 2010

नए निजाम में

बहुत शोर है कि
बदल गया है निजाम
बदल गयी है व्यवस्था
तौर-तरीके सभी शासन-सियासत के
फिर शुरू हो चुका है
तबादलों का व्यवसाय
और
सुशासन का पीटा जाने लगा है
ढिंढोरा
बेआवाज-सा

आज एक सेमिनार का आयोजन था
प्राथमिक शिक्षा के सुदृढीकरण पर चर्चा हुई
शहर के तीन सितारा होटल में
बुद्धिजीवियों से खचाखच भरा -
कांफ्रेंस हॉल
मुर्गे की टांग चबा-चबा
बिसलरी का पानी पी-पीकर
उन्होंने रखी अपनी बात
चलती रहनी चाहिए
मध्याह्न भोजन यानी खिचड़ी-भोज
नौनिहालों को पढ़ाना है  
सुशिक्षित बनाना है
समाज को सुधारना है
भई, नया निजाम है
नए तरीके हैं.

हमीं हैं पागल
कुछ अच्छे की सोच रखते हैं
आखिर, वही पुराना हम्माम है
और वही चेहरे हैं
नंगे और अधनंगे सभी .

Sunday, 10 January 2010

ज़रा जल्दी करो

मौन रहने की
आदत नहीं रही कभी
इसलिए
बोल जाता हूँ.

बोलने की पुरानी -
आदत रही है - सो
कह के निकलता हूँ.

तुम्हारी खामोशी
और हमारी बकबकी के मध्य
खिंची दीवार  की -
मजबूती बनी रहेगी
तब तक - जब तक
ये तय नहीं हो जाता
कि दीवार कायम -
है तो सही है
कि गलत है.

सवालों की ये -
गुंजाइश बड़े जोर से
बन आयी है
कि बहुत सारे
रो रहे हैं.
हंस रहे बहुत कम
कि बहुत सारे दुखी हैं.
खुश हैं बहुत कम
बहुत सारे लूटने में लगे
वाजिब भी पाते बहुत कम
कि बहुत सारे गैर जिम्मेदार
गिनती के हैं जिम्मेदार
कि व्यवस्था बिगड़ चुकी
बहुत हद तक
थोडा बहुत ही शायद अच्छा
कि बहुत सारे हैं गुस्साए बैठे
फूटता है गुस्सा मगर क्यों नहीं

तभी तो सोचता हूँ
इस दीवार के बरक्स
जो सबूत हैं
कि न बोलने वालों की
बढ़ती तादाद और
चुप्पी तोड़ने वालों के
मंसूबों पर फिरता जा रहा पानी
दिन - ब - दिन
मोटी होती दीवार
गिरानी तो होगी
चुप्पी तोडनी तो होगी
लेकिन कब ...

Friday, 1 January 2010

तपती ज़िंदगी

मानता हूँ कि सही आकर के लिए
लोहे को खूब तपाया जाता है,
फिर पीटा भी जाता है।
छोटे-बड़े तरह-तरह के -
हथोड़े का दर्द पिलाया जाता है।

अच्छा होता है सही आकार -
हर बात तरीके से
हर काम सलीके से
मिनटों में निपटाया जाता है।

बड़े दादा कहते हैं -
लोहे की तरह तपकर
आदमी सख्त व माकूल बनता है।
एक सिद्धांत या मूलमंत्र की तरह -
बार-बार समझाया जाता है।

पर,
किसी ने देखा है वो मंजर -
एक आदमी,
ज़िंदगी गुजर देता है -
ताउम्र तपता ही रह जाता है।

बसते की बोझ से गुजरकर
कुछ बनने को -
बन जाने पर निभाने को
तपना ही पड़ता है।

बीवी आती है
फिर बच्चों की खातिर।
बूढ़े माँ-बाप की -
लाठी बनता है।

खुद का बुढ़ापा
जवान हो चले बच्चे
दुःख देते हैं
ना देते हैं -
उनकी खातिर तपता है।

तपता ही जाता है।
तपता ही जाता है।
सही आकर पाने की खातिर।

पा लेता है सही आकर
सीधी आग से गुजरने के बाद
राख की शक्ल में
जिसे प्रवाहित कर दिया जाना है
कुछ ही क्षणों बाद । ।

  गजल   पूरी नजर से अधूरा घर देखता हूं। गांवों में अधबसा शहर देखता हूं।   पूरे सपने बुने, अधूरे हासिल हुए। फिर-फिर मैं अपने हुनर...