Sunday 10 January 2010

ज़रा जल्दी करो

मौन रहने की
आदत नहीं रही कभी
इसलिए
बोल जाता हूँ.

बोलने की पुरानी -
आदत रही है - सो
कह के निकलता हूँ.

तुम्हारी खामोशी
और हमारी बकबकी के मध्य
खिंची दीवार  की -
मजबूती बनी रहेगी
तब तक - जब तक
ये तय नहीं हो जाता
कि दीवार कायम -
है तो सही है
कि गलत है.

सवालों की ये -
गुंजाइश बड़े जोर से
बन आयी है
कि बहुत सारे
रो रहे हैं.
हंस रहे बहुत कम
कि बहुत सारे दुखी हैं.
खुश हैं बहुत कम
बहुत सारे लूटने में लगे
वाजिब भी पाते बहुत कम
कि बहुत सारे गैर जिम्मेदार
गिनती के हैं जिम्मेदार
कि व्यवस्था बिगड़ चुकी
बहुत हद तक
थोडा बहुत ही शायद अच्छा
कि बहुत सारे हैं गुस्साए बैठे
फूटता है गुस्सा मगर क्यों नहीं

तभी तो सोचता हूँ
इस दीवार के बरक्स
जो सबूत हैं
कि न बोलने वालों की
बढ़ती तादाद और
चुप्पी तोड़ने वालों के
मंसूबों पर फिरता जा रहा पानी
दिन - ब - दिन
मोटी होती दीवार
गिरानी तो होगी
चुप्पी तोडनी तो होगी
लेकिन कब ...

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