हमारे घर की दीवार देख
इसकी ऊंचाई भी देख
बड़ी मिहनत से बनाई है
समझ ले ये मेरी कमाई है
मेरे शानो-शौकत देख
ऐशो-आराम मेरे तू देख
ये गाड़ियाँ नई-नई लाई है
समझ ले ये मेरी कमाई है
मेरे पैरहन पर गौर फरमा
चमकते बूटों को निहार
देख आदमकद सफाई है
समझ ले ये मेरी कमाई है
मेरे रूतबे से वाकिफ सब
शहर में हैं मुरीद सब मेरे
नहीं ये ताल्लुकात हवा-हवाई है
समझ ले ये मेरी कमाई है
गांव की गंध नहीं आती है
उस मिट्टी से दूरी सताती है
कहते हैं ये खुद से बेवफाई है
क्या व्यर्थ ये सारी कमाई है?
Thursday 30 September 2010
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1 comment:
गांव की गंध नहीं आती है
उस मिट्टी से दूरी सताती है
कहते हैं ये खुद से बेवफाई है
क्या व्यर्थ ये सारी कमाई है?
beautiful lines, i's about to cry.
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