Tuesday 16 March 2010

फासले

फिर वही समंदर
वही बड़ी मछली
और छोटी मछली
जारी है सिलसिला
खाने और निगलने का

ये और बात है
कि गोरे चले गए, पर
अगड़ा तो है पिछड़ो के लिए
उंच तो है नीच के लिए
मोटे हैं दुबले के लिए

समंदर की वही स्थिति  है
बड़ी व्हेल का राज है
सब कुछ जानती है छोटी मछली
तड़प रही है, फंस रही है.
खाई-पचाई जा रही है.

Sunday 7 March 2010

मेरी मां

मुझे खिलाने के बाद
चुपके से जाकर सो गयी
कटोरी भरकर दूध दी थी मुझे
बोली, मैं पी चुकी इसलिए कम रह गयी
वह बिस्तर पर खांस रही थी
मैं करवटें बदल रहा था.
मुझे मालूम है
मां आज फिर झूठ बोल गयी.

  क्या हो जाता गर दिल खोल लेने देते जीभर बोल लेने देते मन की कह लेने देते उनका इजहार हो जाता आपका इनकार हो जाता क्या हो जाता गर कटवा लेते जर...