Tuesday, 29 December 2009

सबको मुबारक नया साल

सत्ता के नए ठांव
बिसरते गाँव
दहकता शहर
आतंक का कहर
बहुत गुल खिला गुजरे साल
सबको मुबारक नया साल।



पड़ोस क़ी आग
खूनी फाग
बिजनेस में बोर

रिश्ते का जोर
बहुत गुल खिला गुजरे साल
सबको मुबारक नया साल।




जानलेवा गर्मी
बाज़ार की नरमी
कानून से खिलवाड़
पैबंद लगी दीवार
बहुत गुल खिला गुजरे साल
सबको मुबारक नया साल।

Sunday, 20 December 2009

मैं बेबस

मैं जो हूँ
मालूम है सबको
और
मेरे आसपास जो है
देख रहें हैं सब
चूंकि मैं बहुत आम हूँ
चर्चे में नहीं हूँ इसलिए

पर,
मेरे एक बगलगीर
बड़े नेता हैं
शासन-सियासत में रसूख रखते हैं
पहुँच पैरवी भी बहुत है
नगदी भलाई लेकर
दुनिया भर का भला करते हैं
दलाली, जो कि नेताओं का अहम् पेशा है
समाजसेवा की आड़ में बेधड़क करते हैं।
भाई साहब, खादीधारी
बहुत बड़े आदमी हैं

मेरे दूसरे बगलगीर
बड़े अधिकारी हैं.
नाम है, पैसा है, इज्ज़त है.
गुरूरियत भी कुछ कम नहीं
रिश्वत जो कि सिस्टम में है
बड़े शान से लेते हैं
ऊपर तक पहुँच है अक्सर बखान करते हैं
सूटेड - बूटेड साहब जी ,
बहुत बड़े आदमी हैं


मेरे तीसरे बगलगीर
धनकुबेर हैं समझो ।
पैसा है, शोहरत है, बिजनेस जमी-जमाईहै।
काली भी - उजली भी , दोनों कमाई है।
दिखते कुछ, करते कुछ और भी हैं।
पैसे का जोर है , नाम - गाम चहुंओर है।
भैया जी, फलां गांव वाले
बहुत बड़े आदमी हैं।

गिरिजा चाची माफ़ करना,
मैं इनमें से कुछ भी नहीं।
तुम्हें अमेरिका पहुँचाना,
मेरे बस का नहीं।


(गिरिजा देवी को अमेरिका में भाषण देने बुलाया गया था, मगर जरूरी इंतजामात नहीं हुआ, इसलिए वह नहीं जा सकीं । मुफलिसी भी एक वजह थी । )

Wednesday, 16 December 2009

चलती रेल में

वो जी रहा है
और जिला रहा है
उन लोगों को भी

जो उसके सहारे जिंदा हैं
वो जिंदा हैं और उनकी बुनियाद -

आबाद है -

क्योंकि तुम्हारी कुछ बुरी आदतें हैं

तुम अपनी आदतों से बाज नहीं आओगे

शुक्र है, उसकी हथेलियों में तुम -

रख दे रहे हो -

बुरी आदतों की औने-पौने कीमत

तुम भी खुश वो भी खुश

तुम्हारे छोड़न की बटोरन ही

उसका पेशा है

मेरा इशारा रेल के डब्बों में

कचरा बहोरते - झाड़ू लिए

नन्हे हाथों की ओर है ।

अब फैसला तुम्हें करना है

किसे बदलोगे -

बुरी आदतों को या

नन्हे हाथों की दशा-दिशा को

या कि दोनों को ...






चैनल

बीच बाज़ार खड़े हो
शुरू ही किया बोलना
राजनीति से शुरू कर
गंदी है, कहने से पहले
चैनल बदल दिया ...

धर्म की बात करता
अधर्म जो लग रहा था मुझे
भीड़ थी बिन ब्याही सीता की
स्वयंवर लग रहा था राम के दरबार
फिर से, चैनल बदल दिया ...

चौके-छक्के पर पेनाल्टी
गेंद पर आ गिरा गोलपोस्ट
मैदान में ही सौदेबाज रेफरी
निशाने से चूक गया तीर
क्या हुआ, चैनल बदल दिया ...

अन्तःवस्त्र में हीरोइन
बिना शर्ट के हीरो नाच रहा
नायक के खल पर
रो रहा था जोकर
कहाँ लगी, चैनल बदल दिया ...

ख़बरों की नई दुनिया
चार मरे छः घायल
बलात्कारी धरा गया
कैदी फरार जेल तोड़कर
बस! की चैनल बदल दिया ...

धमाका पाप का
मिक्स यानी पुराने का री
धुनों के साथ छेड़छाड़
बदन हिलाना माने डांस
पसंद नहीं, चैनल बदल दिया ...

क्योंकि फूहड़ है सो हंसो
नाम वाला बोला खरीदो
निखार आयेगी, जवान दिखोगे
साबुन का प्रचार है, बदन उघाड़ है
खाली है जेब, चैनल बदल दिया ...

पैसा है बाप का गुस्सा हमारा -
आजिज़ हो मैंने चैनल ही तोड़ दिया ।

Sunday, 13 December 2009

महक

इसलिए नहीं कि वो मुझे पसंद नहीं
इसलिए भी नहीं कि
उसे अपने चेहरे पर भरोसा नहीं
तो किसलिए ....

हमारे मासिक आय की
मोटी राशि खर्च देती है
और मैं देखता भर हूँ
क्योंकि वो दिखाती है
और ... मैं सोचता हूँ
काश! हम जवान होते
कुछ दशक पहले
गांव में गंवईयत थी जब।


हल्दी और चंदन
नाम के लिए है
पैकेट पर तस्वीर है
गांव की दुकान में सजी है।


कास्मेटिक की दुनिया में
डूबी हमारी बीवी
परेशान इसलिए है
क्योंकि इस डब्बे में
महक उतनी अच्छी नहीं

डब्बे - पर - डब्बे
कितना खरीदेगी
जाने कब उसको
मुफीद महक मिल पायेगी ।

द्वंद्व

महाभारत फ़िर से दुहरा रहा है
कौरव-पांडव में झमेला खड़ा है
आधुनिक महाभारत काल -
और अल्पसंख्यक पांडवों की
जोर पकड़ती आरक्षण की मांग के बीच
हस्तिनापुर और इन्द्रप्रस्थ ।

धर्मवादी युधिष्ठिर और
सामंती दुर्योधन , सलाहकार शकुनी मामा
विजातीय मामा की नज़र में
विजातीय कौरव और पांडव
वहीँ एकीकरण के सवाल पर
मौन साधे कन्हैया
धनुर्धर और गदाधारी चुप

वर्ग संघर्ष के दरम्यान
राष्ट्रीयकरण और सामाजीकरण -
की चिंता में अधगले जन्मांध
सामने दिव्य दृष्टि लगाये संजय
यथार्थ के नए पहलुओं के अध्ययन में रत

विचार और क्रांति को
बरगलाते कर्ण का कथ्य कि
कौरव मात्र के हितभागी हैं भीष्म
लेकिन विदुर को है मालूम
पितामह के लिए समान हैं कौरव और पांडव ।

सौ में एक है दुर्योधन
भुना रहा पितामह को
और पीछे चले जा रहे अबूझ निन्यानवे।

भवेश

Saturday, 12 December 2009

शब्दों की दुनिया

शब्दों की धार से
कहीं ज्यादा मायने रखती है
वाक्यार्थों की धारा
लेखक का भाव
उसका झुकाव
किसी भी वाद पंथ या इज्म विशेष के प्रति
पूरी तरह समर्पित
लेखन की विधा
हो सकती है अलग-अलग
लेकिन
कलम की दुकानदारी
लाभप्रद नहीं तो क्या मजा !
कसम अरुण शौरी की
पत्रकारिता तब तक नहीं सफल
जब तक न मिले मंत्री पद
टूकरों को बेचते-बेचते
एक दिन कर देंगें देश का भी विनिवेश!
मृदुला सिन्हा की शर्त पर मैं कहूं
कैसी और क्यों निर्मला
ज्यों मेहंदी के रंग
रंगत में तो आई
भले ही पीछे से
जमात विशेष चिल्लाई !

भवेश

Friday, 11 December 2009

स्वागत

इस ब्लॉग में आप का स्वागत है।

आपका
भवेश चंद

  गजल   पूरी नजर से अधूरा घर देखता हूं। गांवों में अधबसा शहर देखता हूं।   पूरे सपने बुने, अधूरे हासिल हुए। फिर-फिर मैं अपने हुनर...