Wednesday, 8 September 2021

 

चांद, तारे, फूल, शबनम

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चांद, जिस पर मैं गया नहीं

जिसे मैंने कभी छुआ नहीं

उजले-काले रंगों वाला-

जो दिन में कभी दिखा नहीं

 

चांद तुम्हें मैं कैसे कह दूं

गलतबयानी मैं कैसे कर दूं

 

तारे, दूर गगन में रहते हैं

मुट्ठी में कभी न आते हैं

दूर बहुत उसकी टिमटिम

पौ फटते ही गुम जाते हैं

 

तारे तुमको कैसे लाकर दूं

गलतबयानी में कैसे कर दूं

 

फूल, इतने सारे गुलशन में

अजग-गजब के महक चमन में

इतने-इतने रंगों में है मिलता

मैं भटक गया हूं इस उपवन में

 

फूल तुम्हें मैं खत में क्यों भेजूं

गलतबयानी में कैसे कर दूं

 

शबनम, इन बूंदों की क्या बिसात

तुम, तुम हो इसकी क्या औकात

मौसम का मारा रहता ये खुद ही

इससे कब बननी अपनी बात

 

शबनम के माफिक क्यों लिख दूं

गलतबयानी मैं कैसे कर दूं

  गजल   पूरी नजर से अधूरा घर देखता हूं। गांवों में अधबसा शहर देखता हूं।   पूरे सपने बुने, अधूरे हासिल हुए। फिर-फिर मैं अपने हुनर...