Saturday, 10 March 2012

मेहनतनामचा

समंदर से हुई
मेरी हर बातचीत में
यह बात तफसील से कही गई
कि -
अबकी साहिल की खैर नहीं
मेरी लहरें आएंगी
और
उलीच ले जाएंगी
किनारे पड़ी रेत
बढ़ जाएगा हमारा दायरा
होता जाएगा मेरा विस्तार
समंदर,
तुम साम्राज्यवादी हो गए हो।

हालांकि,
मैं कहने के साथ-साथ
डरता भी रहा हूं
सहमता भी रहा हूं
हर बूंद असर दिखाती है
फिर तो यह समंदर है।

मगर,
मैं फिर से संभल जाता हूं
बूंद के बाद जब कभी-
बुंदेलखंड याद आ जाया करता है

मैं खुद को ताकीद करता हूं
मत घबराओ, मत घबराओ
बुंदेलखंड से पूर्वांचल
और ओखला तक जाने के बाद भी
थोथा चना भाड़ नहीं फोड़ सका
साम्राज्यवाद पर समाजवाद का विजय
हमें तुष्ट कर देता है!!

इस देश से!

बात वर्षों पुरानी है
इसलिए तुम्हें याद नहीं शायद
राज ऐसे ही बंटता रहा है
पुश्त दर पुश्त
हर मुलायम बेदखल होते हैं
किसी न किसी अखिलेश से
जैसे कोई जवाहर लाल हटे थे
इंदिरा के लिए इस देश से!

  गजल   पूरी नजर से अधूरा घर देखता हूं। गांवों में अधबसा शहर देखता हूं।   पूरे सपने बुने, अधूरे हासिल हुए। फिर-फिर मैं अपने हुनर...