बुढिय़ा चहक रही है।
बुढिय़ा फुदक रही है।
बुढिय़ा की खुशी असीम है।
यह पल कितना हसीन है।
सवा सौ साल कम नहीं होते-
दिमाग काम करना बंद कर देता है।
हाथ-पैर सुन्न हो जाते हैं।
आला यह कि- बीच राह सांस टूट जाती है।
यह बुढिय़ा फिर भी बेफिक्र है।
दशकों से राज करती आ रही थी।
अब कहेगी सदियों से राज करती हूं।
वह राज करने के लिए ही जिंदा है।
यह बुढिय़ा आखिर मरती क्यों नहीं?
न आपातकाल का शर्म इसे डुबो पाई।
न बोफोर्स के गोले इसे दहका पाई।
न कभी मौत का खौफ सहमा पाई।
बेलज्ज बुढिय़ा के बच्चे भी बूढ़े हो गए।
पहले राजकुमार फिर महाराज बने।
राज मगर चलता रहा, चलता रहेगा
छोटे-छोटे कॉमर्शियल ब्रेक के बावजूद।
बुढिय़ा अब पोते पर गुमान करती है।
बुढ़ाए-सठियाये बेटे को छोड़ दी-
पोते को अब युवराज कहती है।
मगर इशारे में महाराज बताती है।
बुढिय़ा फिर भी नहीं मरेगी।
वह जिंदा रहेगी ताजिंदगी।
गाल भले ही चिपक जाएं।
दांत टूट जाए, वह थोथी हो जाए।
बुढिय़ा, महाराज या हे महामना युवराज।
क्या है आपके लंबे जीवन का राज?
Sunday, 19 December 2010
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1 comment:
kavita wakayi acchi ahi. magar isme budhiya ke suruati daur ka zikra, beti ki charcha, pote (sanjay) ka algaw adi ka samavesh hota to yah kavita aur bhi sarthak hoti. apitu ek bar phir se sam-samayik kavita ke liye dhanyabad.
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